Tuesday, October 13, 2009

मेरा भारत भूखा सो रहा कुछ करना है .

"हर मोड़ पर बच्चा रो रहा कुछ करना है ।

मेरा भारत भूखा सो रहा कुछ करना है ।"
आज़ादी के ६३ साल हो गए , आज हम किसी के गुलाम नही है , अंग्रेज इस देश से सदा के लिए जा चुके है । भारत माँ के सपूतों ने अपनी कुर्बानी देकर इस देश को आजाद कराया। भगत सिंह , चंद्रशेखर आजाद , नेता जी सुभाष चन्द्र बोस , खुदी राम बोस , प्रफुल चंद्र चाकी , राम प्रसाद विस्मिल , झांशी की रानी , महात्मा गाँधी , लाला लाजपत राय , वीर कुंवर सिंह , सुखदेव , राजगुरु जैसे नेताओं ने अपने जान की कुर्बान कर दिया , नेहरू जी , सरदार पटेल जैसे नेताओं ने अपने जीवन का एक बड़ा पल जेल में बिताया । ये तो कुछ ऐसे नेता थे जिनकी चर्चा हुई ,पर लाखो ऐसे नेता थे जिनकी कही कोई चर्चा नही हुई , जिन्होंने गुमनामी में अपना सारा जीवन देश के लिए न्योछावर कर दिया , सबने मिलकर अपने खून से सींचा इस देश को । आज़ादी की लडाई में न जाने कितने बच्चे अनाथ हुए होंगे , न जाने कितनी माँ ने अपने सपूत खोये होंगे, कितनी औरतें विधवा हुई इसका कोई विवरण नही है । हजारों ऐसे घर होंगे जिनके घर दिया जलाने वाला भी नही होगा ।
" अफसाने इनके लिखे हुए हैं ,जेलों की दीवारों में ।
अहिंसा के ये अग्रदूत , कभी बिके नही बाजारों में ।
न लिखी गई कोई आत्म कथा , न रचा गया कोई वांग्मय ।
चुपचाप धरा पर आए थे , चुपचाप धरा से विदा हुए । "
पर आज देश में अंग्रेज तो नहीं है पर लुटेरो , कातिलों की कमी नही , लोग अपने अपने से झगड़ रहे है , बात बात में एक दुसरे को मार डालते है , जिन्हें हम अपना सुबकुछ सौप देते है वो हमारा सबकुछ लूट लेते है , जिन्हें हम देश चलाने का मौका देते है वो ही देश को तोड़ने लगे है , देश के पैसे को वो अपना और अपने परिवार के लिए इस्तेमाल करते है , विदेशो में बंगला , गाड़ी खरीदने में लगते है । किसी ने सच ही कहा है :-
" स्विश बैंक में लूटकर दिया राष्ट्र धन भेज
गोरो से ज्यादा कुटिल ये काले अंग्रेज "
आज के नेता न गरीबों की बात करते है न उनके लिए कोई कम करते है , सरकार ने कुछ ऐसी पॉलिसी बनाई है की बैंक उन्ही को कर्ज देते है जिन्हें कर्ज की कोई जरूरत नही , जिन्हें सचमुच पैसा चाहिए वो वो पैसे लेने के हक़दार नही , वो तो पुरा दस्तावेज ही नही जुटा पाएंगे। नेता लोग विकास की बात तो भूल ही गए है , हमेशा जात पात , धर्म , प्रान्त , बोली के नाम पर देश को बहकाते रहते है , लोगो को आपस में लडाते रहते है । धर्म जात पात प्रान्त के नाम पर हर साल करीब १ लाख लोग प्रभावित होते है । हमेंशा गरीबो को निशाना बनाया जाता है , दंगों में कभी कोई नेता क्यों नही मरता , कभी किसी बड़ी हस्ती को दंगो में मरते सुना है हमेशा आम आदमी जिसकी कोई औकाद नही है वही इनका शिकार बनते है ,। ये लोग हमें बेबकूफ बना कर हमें बाटते है , लडाते है , हम लोग भी छोटी छोटी बातों में आके बहक जाते है ।
पर अब वक्त आ गया है हम संभलें और अपने देश को संभालें क्योंकि कोई चमत्कार नही होगा , कोई हमें बचाने नही आएगा । सरे बुरे लोग संगठित है , चोर , पुलिस , नेता, बदमाश , सरे के सरे मिले हुए हैं ।
"राजनीती की द्रोपदी , नंगी बीच बाज़ार ।
स्वयं परमात्म प्रभु करें , कपड़ो का व्यापर ।"
इसलिए मेरे देश के सच्चे सपूतों जागो और इस देश को डूबने से बचाओ । इससे पहले की देर हो जाए हम सब मिलकर आपने देश को संभल ले ,।

बासुकी नाथ

Wednesday, October 7, 2009

नर हो न निराश करो मन को

नर हो न निराश करो मन को
कुछ काम करो कुछ काम करो
जग में रहके निज नाम करो
यह जन्म हुआ किस अर्थ अहो
समझो जिसमें यह व्यर्थ न हो
कुछ तो उपयुक्त करो तन को
नर हो न निराश करो मन को ।

संभलो कि सुयोग न जाए चला
कब व्यर्थ हुआ सदुपाय भला
समझो जग को न निरा सपना
पथ आप प्रशस्त करो अपना
अखिलेश्वर है अवलम्बन को
नर हो न निराश करो मन को ।

जब प्राप्त तुम्हें सब तत्त्व यहाँ
फिर जा सकता वह सत्त्व कहाँ
तुम स्वत्त्व सुधा रस पान करो
उठके अमरत्व विधान करो
दवरूप रहो भव कानन को
नर हो न निराश करो मन को ।

निज गौरव का नित ज्ञान रहे
हम भी कुछ हैं यह ध्यान रहे
सब जाय अभी पर मान रहे
मरणोत्तर गुंजित गान रहे
कुछ हो न तजो निज साधन को
नर हो न निराश करो मन को ।
:- मैथिलीशरण गुप्त -:

विजयी के सदृश जियो रे



वैराग्य छोड़ बाँहों की विभा संभालो
चट्टानों की छाती से दूध निकालो
है रुकी जहाँ भी धार शिलाएं तोड़ो
पीयूष चन्द्रमाओं का पकड़ निचोड़ो

चढ़ तुंग शैल शिखरों पर सोम पियो रे
योगियों नहीं विजयी के सदृश जियो रे

जब कुपित काल धीरता त्याग जलता है
चिनगी बन फूलों का पराग जलता है
सौन्दर्य बोध बन नयी आग जलता है
ऊँचा उठकर कामार्त्त राग जलता है

अम्बर पर अपनी विभा प्रबुद्ध करो रे
गरजे कृशानु तब कंचन शुद्ध करो रे

जिनकी बाँहें बलमयी ललाट अरुण है
भामिनी वही तरुणी नर वही तरुण है
है वही प्रेम जिसकी तरंग उच्छल है
वारुणी धार में मिश्रित जहाँ गरल है

उद्दाम प्रीति बलिदान बीज बोती है
तलवार प्रेम से और तेज होती है

छोड़ो मत अपनी आन, सीस कट जाये
मत झुको अनय पर भले व्योम फट जाये
दो बार नहीं यमराज कण्ठ धरता है
मरता है जो एक ही बार मरता है

तुम स्वयं मृत्यु के मुख पर चरण धरो रे
जीना हो तो मरने से नहीं डरो रे

स्वातंत्र्य जाति की लगन व्यक्ति की धुन है
बाहरी वस्तु यह नहीं भीतरी गुण है

वीरत्व छोड़ पर का मत चरण गहो रे
जो पड़े आन खुद ही सब आग सहो रे

जब कभी अहम पर नियति चोट देती है
कुछ चीज़ अहम से बड़ी जन्म लेती है
नर पर जब भी भीषण विपत्ति आती है
वह उसे और दुर्धुर्ष बना जाती है

चोटें खाकर बिफरो, कुछ अधिक तनो रे
धधको स्फुलिंग में बढ़ अंगार बनो रे

उद्देश्य जन्म का नहीं कीर्ति या धन है
सुख नहीं धर्म भी नहीं, न तो दर्शन है
विज्ञान ज्ञान बल नहीं, न तो चिंतन है
जीवन का अंतिम ध्येय स्वयं जीवन है

सबसे स्वतंत्र रस जो भी अनघ पियेगा
पूरा जीवन केवल वह वीर जियेगा!

सौजन्य :- 'रामधारी सिंह दिनकर '